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जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा

दिसे त्या ठिकाणीं करा सर्प अंत।

तसा लांडगा ठेवणे ना जिवंत।।

रिपू नाश हा ध्यास चित्तांत ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।1।।

 

विना शक्ती सिंहास हुंगेल श्वान।

धरित्री वरी कोणी देई न स्थान।।

बलप्राप्तीचा ध्यास चित्तात ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।2।।

 

लकाकेल त्याला नका मानू स्वर्ण।

भुलावे कसे पाहुनी बाह्यवर्ण।।

बकध्यान रंगातला भेद पहावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।3।।

 

नका हात घालू कधीं वारुळांत।

तपासावया साप आहे कां आंत।।

धुरी मिरचीची पेठवूनी पहावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।4।।

 

जगीं धर्म सारे असती समान।

असे उक्ती हे मारीचवत् विधान।।

सीतामाईवत् ना कधींही भूलावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।5।।

 

घडे काय पुढती आधीं जाणणारा।

विचारांती पाऊल पुढे टाकणारा।।

न घेई कधीं यत्नमार्गी विसावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।6।।

 

असें कर्मयोगी मनीं धारदार।

अपेक्षे न केव्हा कुणाचा आधार।।

अपत्ती पुढें पाय मागें न ठावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।7।।

 

आगीसाठीं ठिणगी हि होते पुरेशी।

घडे घात सर्पास घेता उशाशी।।

बुडामाजीं नौका विनाछिद्र ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।8।।

 

गळे पाणी डोळ्यातूनी थेंब थेंब।

घडीने घडी आयु संपे अथांग।।

विना कर्म वाया क्षण हि न जावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।9।।

 

हालाहल चित्तीं मुखीं गोड वाणी।

अशांचे न घ्यावे कधीं अन्न पाणी।।

विदूराघरीं कृष्ण घेती विसावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।10।।

 

नका दूध पाजून कधीं सर्प पाळू।

नका दंश होता उगा अश्रू ढाळू।।

दिसताच पन्नग ठेचून वधावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।11।।

 

गवत दाट हिरवे गडद उंच छान।

तयातून जाता असा सावधान।।

क्वचित साप हिरवा दडला असावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।12।।

 

जशी लोणीधारा तशी स्वर्णधारा।

टिकें कां रणीं कागदाचा नगारा।।

तसा कार्यकर्ता त्रयीवत् नसावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।13।।

 

रिपूला क्षमा ना कधीं ही करावी।

जगायाची संधी कदापि न द्यावी।।

रिपूनरडीचा घोट तत्काळ घ्यावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।14।।

 

दिसायास मृगजळ उदधीसमान।

किती उंच ती इंद्रधनुची कमान।।

उभयतातला भास जाणून घ्यावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।15।।

 

मधु शब्दपंक्ती सदोदिव ओठीं।

परी काकबकवत् अधम वृत्ती पोटीं।।

अशा माणसाना अति दूर ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।16।।

 

दिसे ना परी सौरभ चंदनांत।

तसा सुप्त अग्नी वसें लाकडांत।।

खलोक्तीतला भाव/अर्थ जाणून घ्यावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।17।।

 

जळामाजी असता सुसर शक्तीमान।

जधीं भूमीवासीं बने शक्ती हिन ।।

रिपूचे बलस्थान चित्तांत ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।18।।

 

करोनी उगा बोलती हाव भाव।

परी अंतरीं स्नेह ममता अभाव।।

अशांच्या उरीं नित्य असतोच कावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।19।।

 

गुळापाशी येती विनाहूत मुंगळे।

जळाच्या जवळपास राहतात बगळे।।

लबाडांची गर्दी जिथे स्वार्थ मेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।20।।

 

बुडाखाली बाचके हातीं अधिंकार।

अशाना जगीं मानती लोक थोर।।

जनांच्या स्वभावास जाणून ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।21।।

 

कळप लांडग्यांचा उभीं गाय मध्यांत।

सुरक्षीत राहू शके कां समूहांत।।

तिला रक्षिण्याला हातीं शस्त्र ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।22।।

 

जरी सत्य असेल अति श्रेष्ठ सुंदर।

टिकावे असें वाटते हे निरंतर।।

टिके ना विना शक्ती हें चित्तीं ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।23।।

 

अलंकार देहास शृंगारताती।

तनूप्राणशक्ती न तें वाढवीती।।

म्हणून शील सर्वोच्च ठेवा जपावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।24।।

 

नको दोन खड्गे कधीं एक कवचांत।

तशा लोहवहाणा नका घालू पायांत।।

रिपूमैत्रीचा राग न आळवावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।25।।

 

गजाचे खाण्याचे असती भिन्न दंत।

हत्तीचे खाण्याचे दिसण्याचे भिन्न दंत।

गजासारखी माणसे हि अनंत।।

जवळ येई त्याला आतून पारखावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।26।।

 

तनूचा दिसे बाहयत: गौर रंग।

परी काजळा सारखे अंतरंग।।

अशांशी कधीं हि न संबंध ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।27।।

 

विषाची चवी ना कधीं हि पहावी।

अहीला कधीं ना गळाभेट द्यावी।।

रिपूवरती विश्वास केव्हा न ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।28।।

 

जरी लांडग्याचा असे पूर्ण वेढा।

धरा सिंहवृत्ती हरिणवृत्ती सोडा।।

वणवा चहु बाजूनी पेटवावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।29।।

 

मुखे बोलती मोठ मोठे विचार।

तया सारखा ना कधीं हि व्यवहार।।

अशांच्या उरांतील हेतु पहावा।।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।30।।

 

आला कोणी शत्रु करायास घात।

कराया तयावरती संपूर्ण मात।।

शिवाजी महामंत्र चित्तीं जपावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।31।।

 

जधीं पेटू लागेल घरदार गोठा।

तदा खोदू लागेल वापी करंटा।।

सदा सिद्धता शत्रुनाशार्थ ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।32।।

 

 

सुसर पाठीवरती बसुनी प्रवास।

करुं पाहे त्याचा घडे सर्व नाश।।

करू कर्म त्यातील धोका पहावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।33।।

 

जधीं घ्यावी लागेल शत्रूची भेट।

नका जाऊं निःशस्त्र केव्हाही थेट।।

असावी हातीं वाघनखे आणि बिचवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।34।।

 

जगीं कोणी ही नारी माते समान।

परंतू जरासें असा सावधान ।।

सती पंगतीला नटीला न बसवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।35।।

 

लांडगा पाठीवरती बसूनी प्रवास।

कराया धजे तो चि पावेल नाश।।

नराधम कधीं सोबतीला नसावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।36।।

 

जधीं हाडवैरी वदे गोड गोड।

नका होऊं बुद्धीने तेंव्हा दगड।।

वदे त्यांतला अर्थ उलटा धरावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।37।।

 

विषानें विषाला वणव्यानें आगीला।

काव्यानें काव्याला मिळवावे मातीला।।

प्रयत्ने अथक शत्रूला संपवावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।38।।

 

भूतांची दया हें जरीं वल श्रेष्ठ।

विवेकें न वागूं तरी होऊं नष्ठ।।

गाईला पाळवी सापाला ठेचावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।39।।

 

आल्या अनुभवानें बने जो न शहाणा।

पडे बोच्यावरती निरंतर उताणा।।

(आल्या)कटू अनुभवातून धडा घेत जावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।40।।

 

  

हरिण लांडग्याच्या ससा श्वानतेच्या।

पुढें ना टिकें या अति क्रूरतेच्या ।।

जगीं सुक्रूरतेचा सदा सुड घ्यावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।41।।

 

आले मूल आडवे रक्षावे मातेला।

रिपूं आंत दडता पेटवावे घराला।।

भविष्यांतला मार्ग हितकर धरावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।42।।

 

अति नीचतेचा महा नीचतेने।

पशु हिंस्रतेचा अति हिंस्रतेने ।।

संहार विषाचा विषानें करावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।43।।

 

धिवर शसाना वृक व्याध मृगाना।

कसाई कसे मारतो गो म्हशीना।।

जगीं दुर्बळांचा कुणाला न केवा(कीव)।।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।44।।

 

बसून उंटावरती नका हाकूं शेळया।

रणी नेत्र झाकून नका मारुं गोळ्या।।

करूं यज्ञ तो पूर्ण डोळस असावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।45।।

 

कितीही जरी दूध पाजूं अहिला।

घडे तें सहाय्यक विषवर्धनाला।।

जधीं संधी लाभें त्वरेने वधावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।46।।

 

जरी हि कडू कारले हितकारी।

जरी टोचरी सुई हि जोडणारी।।

जो जो लाभकारी जिवाशी धरावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।47।।

 

असे रंग रूपाहुनी गुण श्रेष्ठ।

गुणाच्या पुढें वंश कुळ हि कनिष्ठ।।

फणस प्राप्त होता गरा मात्र घ्यावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।48।।

 

त्रिनेत्रीं मदन जाळणारा महेश।

जगाच्या हितासाठी प्राशेल विष।।

अशा शंकराला उरीं साठवावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।49।।

 

परोपकार करता पुरे ना वितान।

म्हणावे अशाला खरा पुण्यवान।।

कृती पाहुनी हा निवाडा करावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।50।।

 

असे जीवनीं अग्नी हा उपकारक।

असे/जरी शीततेचा प्रभावी निवारक।।

परंतू न बांधून कधीं पदरीं घ्यावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।51।।

 

नको हात मिळवणी करा दोन हात।

रणीं नष्ट करूं या पुरीं म्लेंच्छजात।।

रिपूशी कधीं ना सलोखा करावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।52।।

 

प्रयत्ने अथक वारुळे बांधतात।

तया भक्षुनी नाग राहतात आत।।

जगून मुंगीवत् देश खावूं न द्यावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।53।।

 

पुढें लांडग्याच्या बने गाय निष्प्रभ।

बने लांडगा सिंह बघता हतप्रभ।।

अधम गाडण्याला महाधम आणावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।54।।

 

तनूचा दिसे बाह्यतः गौररंग।

असेलच तसा अंतरीचा हि रंग।।

असा भाबडा भाव चित्तीं नसावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।55।।

 

विषाचे विना कां विषाचे सहित।

असा भेद मुंगुस न आणि मनांत।।

रिपूनाश करण्या नकुल चित्तीं घ्यावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।56।।

 

कधीं श्वान ना चावतो भुंकणारा।

वचन सत्य धरता फसे मानणारा।।

असावध नसावें हातीं अश्म ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।57।।

 

दिसायास सुंदर फुले कागदाची।

जणुं काय वाटे तरुवेलीवरची।।

खरें जाणण्या भृंग चित्तीं स्मरावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।58।।

 

विना मृतिका शेती होणार नाही।

विना वायु ना गंध हि दूर जाई।।

विना त्यागे हा देश कैसा टिकावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।59।।

 

रणीं ठेवती शत्रूला जे जिवंत।

अशांचे कसे राष्ट्र राहे स्वतंत्र।।

बियाला न शत्रू अणुमात्र ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।60।।

 

जधीं लांडगा संपतो भांडणात।

नका हर्ष मानूं तयाचा मनांत।।

उरे त्याजला त्वर्य हि संपवावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।61।।

 

पन्नग तनुनें चपळ चकचकित।

त्वचा स्वच्छ सुंदर जरी(कांती) गुळगुळीत।।

विषाचा विसर ना कधीं ही पडावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।62।।

 

पुढें गर्दभाच्या नका वाचूं गीता।

रहाल पार्श्वभागीं उभे खाल लाथा।।

कधीं संग ना गर्दभाशी धरावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।63।।

 

मणीं कांचनाचे चकाकीव पुष्कळ।

जरी ते सछिद्र कशी होई माळ।।

म्हणोनी हातीं भक्कम सूत्र घ्यावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।64।।

 

 

गुळासारखी गोड वाणी मुखांत।

अति आदरे लोक हि मानतात।।

अशांच्या हातीं नित्य भगवा असावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।65।।

 

वदे आदराने झुके नम्रतेनें ।

वदे हास्यवदनें विना कारणानें।।

अशांचा सदा चित्तीं संदेह ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।66।।

 

जरी नासका एक आंबा आढींत।

तरी नासवे/नासते पूर्ण आढी क्षणांत।।

अशा नासक्याला सदा दूर ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।67।।

 

खडे सैन्य हावे स्वदेश रक्षण्याला।

तरुण धार घेती स्वयें भरतीला।।

परंतू सुधन्वा कुणी हि न घ्यावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।68।।

 

नटून राहणारे कुणी हि असोत।

तया ठेवणें दूर हि चार हात।।

अशांचा कधीं हि न विश्वास धरावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।69।।

 

अतोनात उंदीर कुणी त्रस्त झाला।

तयानें त्वरे पाळणें मांजराला।।

परंतू दुधापासूनी दूर ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।70।।

 

स्वदेशीच मानू मनीं विश्ववंद्य।

जरी हि स्वदेशी तरी सर्प व्यध्य।।

फसें ना कधीं राष्ट्रहित जाणण्याला।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।71।।

 

विना किल्लीचे जो कुलुप उघडू शकतो।

कुणाला कुठेहि टोपी घालू शकतो।।

असा ग्रहरक्षक कधीं हि नसावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।72।।

 

दिसाया गजाचे सुळे दोन दात।

गवत भक्षण्याचे परी आंत दात।।

गजासारखा माणूस ओळखावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।73।।

 

जंबुकाची वसती उसाच्या फडात।

मनुजजंबुकांची साखर कारखान्यात।

उभयतावरी पारध नित्य ठेवा ।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।

 

।। पुण्यश्लोक छत्रपती श्रीशिवाजीमहाराज की जय ।।

।। धर्मवीर छत्रपती श्रीसंभाजीमहाराज की जय ।।

।। भारतमाता की जय ।।

।। हिदुधर्म की जय ।।

 

 

 जरी कोकीळा कावळा रंग साम्य।

असे भेद त्यांतील ऋतुराजगम्य ।।

वसंतागमों भेद हा अनुभवावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।75।।

 

चतुष्पाद टेकून उभा अश्व ठाके।

सतत एक पयांत पालटून टाके।।

अश्वासन हें अस्थिर सदा चित्तीं ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।76।।

 

धरे पूर्ण निष्ठा ज्याची खाई भाकर।

धन्याच्या हितासाठी निरंतरही तत्पर।।

जंबुकवृत्ती चाकर कधीं हि नसावा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।77।।

 

पिठीसाखर रांगोळी दिसती समान।

रूचीच्या विना ओळखणे कठीण।।

कशावर बसे मक्षिका लक्ष ठेवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।78।।

 

कसाई विचारे कुठें गेली गाय।

तया सत्य कथणे महापाप होय ।।

विरोधी दिशा सांगुनी त्यास फसवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।79।।

 

नदीला जरी कां महापूर आला।

पोहून जावे लागे पल्याडल्या तिराला।।

पुरांत पोहताना भोरे सर्व चुकवा।

जगीं हिन्दु  अष्टावधानी असावा।।80।।

।। पुण्यश्लोक छत्रपती श्रीशिवाजीमहाराज की जय ।।

।। धर्मवीर छत्रपती श्रीसंभाजीमहाराज की जय ।।

।। भारतमाता की जय ।।

।। हिदुधर्म की जय ।।

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